Thursday, July 2, 2020

इरफ़ान और सुशांत को श्रध्दाजंलि

मृत्यु भद्दी नही होती, पत्ते सूख जाने के बाद निर्द्वन्द लहराते हुए गिरतें हैं. पेड़ अपनी उम्र पूरी करने के बाद धरती पर ऐसे उतरते है जैसे थक जाने के बाद मां की गोद में विश्राम करने जा रहे हों।
वह एक सुंदर क्षण होता है। एक लम्बी यात्रा के बाद विराम बिंदु पर पहुंचने की शांति होती है। एक ठहराव का सुख होता है।
उस गिरने में एक सौंदर्य है।
उसे 'गिरना' कहना ठीक भी नही।

भद्दा है हरे पत्ते का डाल से टूट जाना,
एक हरे उदात्त वृक्ष का धरती पर बिखर जाना.
ये भार असहनीय होती है, और अगर वृक्ष अद्वितीय हो तो धरती के कोर तक को बेध देती है।

🌼इरफ़ान और सुशांत को श्रद्धांजलि🌼



दादी अम्मा के बीड़ी पीने की कहानी।

मेरे पड़ोस में एक दादी अम्मा रहती थीं। पूरे जीवन उन्होंने कोई नशा नहीं किया। लेकिन जब 80 पार हुईं तो अचानक बीड़ी पीना शुरू कर दीं। महीने के हिसाब में उनके बीड़ी का ख़र्च शामिल हो चुका था।

उस बूढ़ी अम्मा की चार बेटियां थीं, सुमनी, सरितवा, अशवा और रंजुआ। सुमनी बड़ी थी और अपने मां के सबसे करीब। दादी अम्मा को कोई भी दुःख-कष्ट हो उनके पति-बेटों को बाद में पता चलता सुमनी को पहले। सुमनी अपनी अम्मा के लिए ससुराल और नईहर (मायके) एक कर के रखती थी।

सुमनी में बस एक ही ऐब थी और वो थी बीड़ी पीने की आदत। अब बाकी घरवाले तो इसे ऐब समझते थे लेकिन बकौल सुमनी बजरंग बली के बाद कोई अगर दुःख हरन है तो यही भोले बाबा का प्रसाद बीड़ी। निश्चित ही सुमनी के पास हुक्का और चिलम की भी व्यवस्था होगी।

तो एक बार सुमनी नईहर मां से मिलने आई थी। दिसंबर का महीना था, सर्दी अपने पूरे शबाब पर थी। दुआरे पर अलाव के सामने दोनों मां-बेटी साथ बैठे हुए थे। तभी सुमनी ने बीड़ी सुलगाई, अम्मा को चूंकि पता था कि सुमनी बीड़ी पीती है फिर भी कौतुक नज़र से देख रहीं थी और अनजान बनकर बोलीं तू कबसे बीड़ी पीने लगी। सुमनी बोली कब्बो कब्बो पियेनी रे अम्मा ( कभी कभी पीती हूं अम्मा )। दादी अम्मा को पता नहीं क्या सूझा जो उन्होंने सुमनी से बीड़ी मांगी, सुमनी ने हंसते हुए पूछा तें पियबे ? ( तुम पियोगी ) दादी अम्मा ने डांटते लहज़े में बोला लईबू की ना हेन्ने ( लाओगी की नहीं इधर )। सुमनी ने हिदायत देते हुए की पीना नहीं है जबकि उसको पता था कि अब बुढ़िया मानेगी नहीं बीड़ी अम्मा को पकड़ा दी। दादी बीड़ी हाथ में लेते ही एक ज़ोर का कश लिया और जिस तीव्रता से धुआं भीतर पहुंचा उसके चारगुनी तीव्रता से एक ज़ोरदार खासी के साथ सारा धुआं बाहर आ गया। दादी का चेहरा पूरा लाल हो चुका था। थोड़ा ठहर कर दादी ने दूसरा कश लिया।इस बार सब सहज था।

फिर क्या था यहीं से दादी का बीड़ी पीने का सिलसिला शुरू हो गया। दादी ने एक बार सिगरेट भी ट्राई किया लेकिन सिगरेट में उन्हें वो बात नहीं मिली जो पहलवान छाप बीड़ी में थी।

दादी का सुमनी के साथ लगाव-जुड़ाव और गहरा होता गया। दोनों जब साथ बैठते तो नज़ारा देखने लायक होता। बीड़ी के कश के साथ हंसी - ठिठोली का माहौल बना रहता।
अब दोनों मां-बेटी कम और सहेलियां ज्यादा लगती थीं।

दादी मां की तबीयत काफ़ी दिनों से खराब थी डॉक्टर ने बीड़ी पीने से मना कर दिया था सो कई दिन हो चुके थे दादी को बीड़ी हाथ लगाए। सभी बेटियां - दामाद, रिश्तेदार दादी मां को देखने आए हुए थे। सुमनी तो ख़राब तबीयत की ख़बर सुनते ही शाम को अपने छोटे बेटे को साथ बस पकड़ कर आ चुकी थी। पति पहुंचाएंगे या नईहर से कोई आएगा लिवाने किसी का राह नही देखी।

एक दिन शाम के समय दादी खाट पर लेटी थीं। अब उनकी सेहत में पहले की तुलना में नाम मात्र का सुधार था लेकिन चेहरे पर चमक थी और इतने दिनों बाद थोड़ी प्रफुल्लित भी थीं। पास में खड़े बड़े बेटे से दादी बोलीं की जरा सुमनी के भेज। बेटा गया और सुमनी को अम्मा के पास भेज दिया।

दोनों मां बेटी आपस में बातें करती रहीं कुछ देर बाद अम्मा बोलीं की तनी एगो सुलगइबे ई अंतिमे ह ( एक सुलगाओ तो जरा ये अन्तिम है ) सुमनी को पता था कि डॉक्टर ने मना किया है लेकिन फिर भी पता नही क्यों वो मना नहीं कर पाई और चुपके से बीड़ी सुलगा कर अम्मा को दे दी। अम्मा कश लगाती रहीं सुमनी पानी लेने के लिए बाहर गई और जब पानी लेकर लौटी तो क्या देखती है कि अम्मा के उंगलियों में बीड़ी का अंतिम हिस्सा (जो बीड़ी पीने के बाद बच जाता है) लटक रहा है और अम्मा की आत्मा विदा ले चुकी है।

दादी अम्मा के चेहरे पर एक सुकून और शांति का भाव था जैसे जीवन से कोई शिकायत नहीं हो। जीवन को हाथ से फिसलते हुए देखती रहीं हो और उसे रोकने का कोई प्रयास भी नहीं किया हो। बीड़ी के सुलगते छोटे टुकड़े से धुआं लहराते हुए आसमान की तरफ बढ़ रही थी। दादी अम्मा तब 96 की हो चुकीं थीं।

चित्र - Google

Thursday, March 26, 2020

मौन - २

मौन साधना इतना कठिन भी न था
लेकिन मैंने चुना कोलाहल
कोलाहल उद्वेलित करती है
छीन लेती है तुम्हारा सर्वस्व

मैं अस्तित्व का ही हिस्सा हूं
अस्तित्व ने सींचा मुझे
अस्तित्व में खोना ही मेरी नियति है

लेकिन मैंने भुलाया खुद को
जितना संभव हो सकता था
भुलाते भुलाते मैं उस दोराहे पर पहुंच चुका हूं कि
तुम्हारा सानिध्य भी मुझे विरक्त करता है
आग में जलना सुकून प्रतीत होता है
शीतलता असहनीय हो चुकी है

अब कोलाहल बेबर्दाश्त है
और मौन चुनना विवशता
लेकिन विवशता में शुभ
कभी घटित होता है भला।

- दिग्विजय

चित्र - इंस्टाग्राम




Monday, November 18, 2019

साइकिल।

कच्चे रास्तों के ऊपर खडंजे बन गए
खडंजों को उखाड़ कर रास्तों को पक्का किया गया
मेरी साइकिल जब खडंजों पर चलती
तो उछलती, खड़खड़ाती, बिखरती थी
लेकिन जबसे रास्ते पक्के हुए हैं
उनपर बड़े रौब से भागती है सरपट
उसे सब कुछ मिला जो उसकी चाल को धार दे
कि इसके बावजूद कुछ अधूरा रह गया
कच्चे रास्तों की कोमलता अब उसके नसीब में नही थी


Sunday, November 3, 2019

हमने प्रेम को देखा संबंधों में।

हमने प्रेम को देखा संबंधों में

संबंध
कच्चे धागों से जुड़े बिंब
नीति - निर्धारित जोड़
अब जोड़ है तो तोड़ भी होगा
टूटन है तो बिखराव भी होगा

प्रेम
कहां एक शाश्वत अनंत
पर्वतों की उचाईयों से
सागर की गहराइयों तक व्याप्त
मृत्यु के पार भी जो
ढूंढ ले जीवन

कितना बड़ा दुर्भाग्य कि
प्रेम को हमने संबंधों में देखा
प्रेम को नहीं देखा
हमने संबंधों को देखा।




Monday, August 26, 2019

मौन - १


जब प्रेम की अनुभूति सबसे गहन थी 
तब तो कुछ कह न पाया 
अक्सर कहने से बचता हूं मैं 
बचता हूं मुलायम एहसासों को शब्द देने से
शब्द रूखे होते है 
छिल देते है जगह-जगह
मौन की गोद में पलती है संवेदना
मौन ही उसकी भाषा है 
मौन संस्कार है
पहाड़ों का सिर जो इतना ऊंचा है 
क्योंकि उनकी जड़ों को सींचती हैं नदियां
भारहीन होकर रेंग रहा हूं मैं 
अब एकबार को चिड़ियाएँ कूक दें 
तो कोई बात बने



Wednesday, August 21, 2019

A letter to my younger self.


इससे पहले किसी को प्रेम करने जाना
अपने भीतर प्रेम का दीपक जला लेना,
प्रेम हुए बिना प्रेम करना
तुम्हारे भीतर के अहंकार के पोषण की युक्ति भर है फिर अगले ही क्षण तुम प्रेम मांगना शुरू कर दोगे

इससे पहले तुम दुनिया बदलने जाना
तुम अपने आत्मा को परिष्कृत कर लेना,
ख़ुद के भीतर बदलाव की एक लौ भर जला लेना, नहीं तो दुनिया तो हिटलर भी बदलना चाहता था

तुम्हारी किसी के प्रति कोई जवाबदेही नही है
सिवाय अपने स्वचेतना के,
अपनी आत्मचेतना के प्रति ईमानदार रहना
यही सत्य है, शिव भी यही है और यही सुंदरतम् है।



Thursday, February 14, 2019

कोई कविता बुरी नही होती।

कोई कविता बुरी नही होती

शब्द हल्के हो सकते हैं
भाव कच्चे हो सकते हैं
लय-छंद बिखरे हो सकते हैं
लेकिन कविता बुरी नही हो सकती

कि तुम्हारे भीतर से कुछ फूटा तो सही
कच्चा-पक्का कुछ टूटा तो सही
ये टूटना शुभ है

कहीं ऐसा तो नही
जिसे संजोया है इतने जतन से
वही मन पे भार बना बैठा हो
जिसे तुमने समझा बेकार-बेतुका
वही जीवन का सार बना बैठा हो

जरूरी तो नही
जिसे प्रेम किया तुमने
वह भी तुम्हे चाहे उसी अनुपात में
जिसे जाने दिया तुमने
लौट आए किसी घनघोर अंधेरी रात में

जो इक्कठा किया है भीतर
उसे टूटना तो होगा
चैतन्य को पीना है तो
भावो को फूटना तो होगा

माना कि तुम्हारे लिखे पर कोई दाद न दे
तुम्हारे शब्दों को, भावो को खाद न दे
तो क्या मौन संगीत में झूमोगे नहीं
कविताओं में ही सही
क्या उसका माथा चूमोगे नही

मन पे जो भार है उसे पन्नों पर उतार दो
लय की फिक्र छोड़ो जो आता है बघार दो

कि कोई कविता बुरी नही होती।

@दिग्विजय